Monday, July 5, 2010

नाराज़गी

नफ़रत के नक़ाब तले ज़िन्दगी जब किया था महफूज़
सोचा न था ये मेरी फिदरत बन जाएगी

गूंजते हैं कानों में मेरे वो लफ्ज़ आज भी
क्या था पता, न हो रफ़ू जिगर पे ऐसे चाक छोड़ जायेगी

अब है रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी,पर हवास है रफ्ता
न जाने ज़िन्दगी से ये बेख़ुदी कब जायेगी

फिर से कागज़ क टुकड़े मेरे रफ़ीक हैं
न था पता बीती इशरत ही मेरा रकीब बन जायेगी

बातारफ हूँ हर शक्श से हर इंसानी जज्बात से
इंशा-अल्लाह मेरी ये नाराज़गी कब जाएगी

हो जाए जिसमे फ़ना ये कोफ़्त ये गुबार सारा
इंतज़ार है मुसलसल वो फिजा कब आएगी

Monday, August 25, 2008

वक़्त

कौन से अल्फाज़ ज़ख्म-ऐ-ज़िन्दगी बन जायें
बोलने वाले को गुमां कहाँ होता है कभी

कल जिनकी छांव में मिलती थी खुशियाँ सभी
वक्त के साथ रिश्तें बोझ बन जाते हैं वही

मुसलसल होती रहे बरसात पर मौजू है ये भी
खिलते नहीं संवेदनाओं के फूल बंजर में कभी

लहू रगों की जगह बहने लगे आंखों से
या परवर लौट के न आए फ़िर वो मंजर कभी

कशमकश में फंसी साँसे कभी तो होंगी मुख्तसर
यही सोच कर तय कर रहे हैं ये सफर अभी ही

अभी शाम नही ढली पूरी आशना,चलो
ले लें अपना हक़,करें पूरा अपना फरोजा भी

बाढ़ bihaar

आशियाना तो हमने भी बनाया था
पर बहने के लिए
चमन तो हमने भी खिलाया था
मगर उजड़ने के लिए
वो आते हैं हवा में पानी देखने के लिए
थकी आंखों से देखते हैं हम उन्हें
भीख की ज़िन्दगी के लिए

पानी में डूबा है मन तो याद आता है
पिछले बरस,बरस दर बरस
घनघोर बह के आता है पानी
संग सैलाब के हमें बहाने के लिए

दर्द के अनगिनत छींटें हैं ज़िन्दगी की चादर पर
मैले आँचल tale पलती है ज़िन्दगी उधार पे
माजी की मर्ज़ी से मजबूर
तकदीर की पतली डोर
किस्मत को हम ही मिले थे
अपना हाथ आजमाने के लिए
तड़पते हैं हम एक मजबूत आशियाने के लिए
शायद आती है बहार हमे जलने के लिए.

क्यों !!!!

क्यों नही हैं
मेरे भी दो व्यक्तित्व
एक अन्दर और दूसरा बाहर
एक दिखावे के लिए-
खुशमिजाज,प्रिय,दोस्ताना.
एक अन्दरवाला,सच-
स्वार्थी,लालची,मौकापरस्त.

क्यो नही आता मुझे
केवल और केवल
मतलब साधना
मतलब पर ही करना
देवों की आराधना

क्यों नही आता
अपनी बातों से पर मन बांधना
हंसी में हँसना,और
दर्द में रास्ता निकालना
भाग जाना??

क्यों??

मुकम्मल सवाल

हर तरफ़ आदमी की भीड़ बेशुमार है
पर हर शख्श तनहा, बेकरार है.
सुबह से शाम तक बेवक्त और बेजार है
अपनी लाश का ख़ुद ही मजार है.

पर ज़िन्दगी की राहें तो लाजवाल हैं
इसमे शिकस्तगी का भी अपना जमाल है
कब कहाँ किस रोज मिलेगी मंजिल
यह ख़ुद एक मुकम्मल सवाल है ..........

जूनून

क्या पूछती है है जिंदगी तू मुझसे
मेरी आँखें पढ़,ये ख़ुद मुजस्सम सवाल हैं
तू तो अपनी जगह लाजवाल है
पर मेरी भी कशिश का अपना जमाल है

जोर लगा ले जितना भी
मुझे हिलाना मुश्किल है
पड़ सकती है खराश पत्थर पर
पर मेरे इरादों को डिगाना नामुमकिन है

इल्म है मुझे क्या चाहती है तू मुझसे
तेरी ही चलती आई है ये कायनात है जब से
अब नही !!!
बिजलियों का शोर जहन में समंदर का उफान है
सब्र के पैमाने में छलक आया हिम्मत का तूफ़ान है

कुचलती है जान कर क्या तू मुझे बर्ग-ऐ-हिना?
सीखा है पार करना हमने,गर्दिश-ऐ-गिर्दाब में खोये बिना
फलक मिटाएगा कब तलक नक्शे-जहाँ से हमें
गर मिट गए भी तो रहबरी के काम आएँगे बहर-ऐ-हस्ती में.........

Friday, August 22, 2008

तुम्हारे लिए

कोशिशें हर नजर हैं
एक काफिले के लिए
तिनके जोड़ते हैं हम
अपने आशियाने के लिए

और अ नजर आए कुछ भी
दामन है हमारा बिजलियों के लिए
दिल में और न कोई आ पाया
जगह है केवल जलजलों के लिए

आज भी ढूँढती आँखें तुम्हे
वो सहारे की दो अँगुलियों के लिए
लेकिन इल्म है हमे तुम हो
केवल यादों की गलियों के लिए

मीलों लंबे हैं रास्ते अभी
फासले बहुत हैं मंजिल के लिए
हम वही रह गए और
कारवां चल दिया महफ़िल के लिए

दिल दर्द है और आँखें सर्द
ढूँढती हु कुछ बूँदें नमी के लिए
बह चुक्का है वो दरिया यहाँ से
शिकवा है माजी से सागर की कमी के लिए

कहीं तो होगा कोई jअरूर
टकराएगा जहाँ से हमारे लिए
बहुत ही तनहा है राहें आज
पर चलते रहूंगी ऐ-दिल तुम्हारे लिए.

अपने अपने अजनबी

सागर की लहरों में खुश थे बहुत हम
साहिल की उमंगो में कितने थे महफूज़ हम
मौजो की मस्ती में हम भी मगन थे
मुट्ठी में मेरे चाँद सितारे,ज़मी और गगन थे

कुछ दिन पहले ज़िन्दगी कितनी नरम थी
हर घड़ी तरंग हर पल नयी उमंग थी
साथ थी तुम दूर थे कई गम
चुभते नासूरों पर लगा था कुक मरहम

हर अजनबी भी हमसाया लगता था
तुम गए अब अपना साया भी पराया लगता है
हर दस्तक पर कोई आया लगता था
मुझ पे सभी को किस्मत ने भी hasaaya लगता है

हर पल तुम को खोया है
पल पल में तुम्ही को पाया है
जब हंसी तुम्हारे ख्याल पे हंसी
जब आँखों में नमी आई,तुम्ही ने रुलाया है

न हो तुम हर तरफ़ तुम्हारा ही नज़ारा है
तुम्हारी मुस्कान ही muskaane का सहारा है
मेरे पास तुम्हारी यादों का आशियाना है
तुम्हारा अक्स अश्कों को सुखाने का बहाना है

तुम्हारी वो शरारत,वो हिमाकत सब याद है
हर रोज हर वक्त एक ख्वाहिश एक फरियाद है
वो मासूम सी हंसी नूर-ऐ-आफताब है
खुशियाँ जो तुने दी,तोहफा ये नायाब है

हमारा वो लड़ना वो झगड़ना सब याद है मुझे
लफ्फाजी जंग के बाद दोस्ती की फरियाद भी याद है
शरारत हिमाकत नजाकत अदावत सब शामिल हैं
कैसी बूँद,कैसी दरिया,कैसा सागर,कैसा साहिल है

कैसी दोस्ती,कैसा रिश्ता,कैसी कमनसीबी है
बहुत ही अजीज कुछ लोगों को अपने-अपने अजनबी हैं……..

Tempest

Sky today is crystal clear
Motionless speedless & in no gear
Moon has taken its place
Thwarting the sun & its pace


And,the dreams before my eyes
Mean a real dare
Will they break,or glitter?
Serenity on face is like ocean-peace
Upheavals of heart how can I speak?

When shall I say gone are tornado curls
And cooler caeser wind taken its whirl?
When the maiden-mad journey will end?
How to I knead from such a blend?

Think of infinite acceleration & zero speed?
My heart beats with infinite cm/s^2
And blood rushes into veins with zero speed

The palpitating pulses wanna some rest
Cessation needed for treatment the best
What’s the answer to my unknown quest
I see a towards me an impending tempest

(when in 12th)

friends..parted friends !

Life’s what?
Memories of gone pals
Or pals still in memory?
Though years rolled
And rolled over tempest,hurricane
Why it’s so perpetual?

We want to remember & we forget
we want to forget still remember
invisibly they inspire our life
and every breath expires with them

who are friends?
For me the gone ones
Or do I only realize
When they are gone?

As saying goes
To rising star everyone bows
Contrary,I bow to them who
Make the star to rise
Oh!! So cool! So wise
I know such guys
And am proud call them
My friends,parted friends

Gone days still fresher
Like a fine pacer
Taking away my life wickets
Sitting in heart-pavilion without ticket

So friends you went
Went away,miles away
To meet perhaps never again
Yet with your friendship
No compromise,no bargain

You are with me in sun,in rain
You are there in my illusion terrain
You guided me,goaded too
You teased me, I responded too
You wrathed me, made to smile too

You are nowhere,still everywhere
You are very far, yet so near
You are invisible, yet appear
You are inaudible,but I can hear……..

आशना

हवा की ओर नही मुड़ते
आशना हम वो हैं जो
हवा का रुख अपनी ओर मोड़ते हैं

है इतना जोश की हम
बिन साहिल के अपन किश्ती
सागर में छोड़ते हैं

तोड़ते हैं जान कर
सब हमें बर्ग-ऐ-खिज़ा
अपने तरानो से हम
ख़ुद से खुदी को जोड़ते हैं

शून्य

असंख्य अगणित अश्रुयों में क्या है?-शून्य
बाण-विन्धित-विकल-विमान में क्या है?-शून्य
विष-विभूषित-विकट-विषय में क्या है?-शून्य
अमल-अनल-अचल-अटल अंतर में क्या है?-शून्य
सुरचित-सुरभित-सहस्त्र-संवाद में क्या है?-शून्य

Baby's Day Out

Baby’s day out
What parents think about.
In the hostel among no kins
But everybody everywhere says
“I’m fine,nothing to worry about”.

They are self confined, deep in thought
Giving break to daylong hobnobs.
Peeping through their inner lobes
Searching surfing surveying situation.

Amidst the tides amidst the hurdles
Trying to find a ray of hope
To get somewhere a friend-rope
To climb the mountainous goal
And be merry with zest & zeal.

परवाज

आवाज़ को परवाज कौन देगा?
जो भी कुछ अनकहे गीत हैं होठों पे
उन्हें साज कौन देगा?
जिस्म और रूह एक-दूजे से गर
यूँ ही खफा रहे तो
मुझे मंजिल तक पहुचने क लिए
हाथ कौन देगा?
हालात गर यूँ ही रहे तो
मेरा हमकदम कौन होगा
मेरा साथ कौन देगा?
सिकंदर बनने की तमन्ना तो है
पर मुकद्दर का हाल कौन देगा?

सपने

जिंदगी रुक गई है
अजीब ठहराव है
भावनाओ का जमाव है
बीतते जा रहे हैं पल,पल पल
गुजरते जा रहे हैं दिन,दिन-ब-दिन;

सपने, यही हैं हमारे साथ
रोज इनका चाँद से आगे निकल जाना
और सुबह ज़मीन से टकरा जाना,
किरचों में बिखर जाना
फलक पर छाने के सपने
कुछ पाने के सपने
सपनो को हकीकत में बदलने के सपने
और कभी, सपनो को टूटता दिखाते
बेगाने से सपने……….

हाँ सपने….मेरे सपने….
अनगिनत बावले से सपने !!!

(Written when in 10th)

Wednesday, August 20, 2008

मेरा मन

मेरा मन, अन्तर का कवि
रोज़ छटपटाता है, कलम उठाता है
कुछ सृजन करने के लिए
ये चाहता है उकेरना
मन में कुलबुलाती वेदनाएं,संवेदनाएं
वेदनाएं, जो असह्य हैं
संवेदनाएं जो असख्य हैं,अकथ्य हैं

कविता की नदी न जाने कहा मुडती है
गिरती संभलती उधर ही चलती है
उसे ख़ुद नही पता है धारा कहा है?
किनारा कहाँ है?
नदी चाहती है अपने आवेग में
सब कुछ समेटना
अपने आवेश में सब कुछ नष्ट कर देना
नदी चाहती है उठा देना चहरे के नकाबो को
चाहती है हटाना मन पर डाले
बेहिसाब हिजाबो को

कवि मन कभी है विनम्र, तरल
फ़िर ख़ुद ही हो जाता है विकल
ढूँढता है अपनी ही रचनाओ में
कहीं जीने का संबल
रचनाएं मन की संरचना को
शायद बनाएं सबल............

कवि मन आज बन चुका है पत्थर
संवेदनाएं उस पर सर पटक रही हैं'
शब्द कहीं अन्दर सिमट रहे हैं
दर्द कही अन्दर ही घुट रहे हैं

नदी आज न जाने कहा मुद रही है
वो ख़ुद भी नही जानती
शायद सागर उससे कभी न मिले
शायद किनारे उससे छूट जाए
हौसले टूट जाए
शायद सारा पानी ही सूख
शायद...शायद............शायद .........
शायद नदी गूम हो जाए
संवेदनाओ के रेगिस्तान में.....................