हर तरफ़ आदमी की भीड़ बेशुमार है
पर हर शख्श तनहा, बेकरार है.
सुबह से शाम तक बेवक्त और बेजार है
अपनी लाश का ख़ुद ही मजार है.
पर ज़िन्दगी की राहें तो लाजवाल हैं
इसमे शिकस्तगी का भी अपना जमाल है
कब कहाँ किस रोज मिलेगी मंजिल
यह ख़ुद एक मुकम्मल सवाल है ..........
Monday, August 25, 2008
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1 comment:
ye mast hai...
reality haan...
gud one...
ab to tumne orkut se bhi link hata diya..kya baat hai...
--Dheeraj
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