मेरा मन, अन्तर का कवि
रोज़ छटपटाता है, कलम उठाता है
कुछ सृजन करने के लिए
ये चाहता है उकेरना
मन में कुलबुलाती वेदनाएं,संवेदनाएं
वेदनाएं, जो असह्य हैं
संवेदनाएं जो असख्य हैं,अकथ्य हैं
कविता की नदी न जाने कहा मुडती है
गिरती संभलती उधर ही चलती है
उसे ख़ुद नही पता है धारा कहा है?
किनारा कहाँ है?
नदी चाहती है अपने आवेग में
सब कुछ समेटना
अपने आवेश में सब कुछ नष्ट कर देना
नदी चाहती है उठा देना चहरे के नकाबो को
चाहती है हटाना मन पर डाले
बेहिसाब हिजाबो को
कवि मन कभी है विनम्र, तरल
फ़िर ख़ुद ही हो जाता है विकल
ढूँढता है अपनी ही रचनाओ में
कहीं जीने का संबल
रचनाएं मन की संरचना को
शायद बनाएं सबल............
कवि मन आज बन चुका है पत्थर
संवेदनाएं उस पर सर पटक रही हैं'
शब्द कहीं अन्दर सिमट रहे हैं
दर्द कही अन्दर ही घुट रहे हैं
नदी आज न जाने कहा मुद रही है
वो ख़ुद भी नही जानती
शायद सागर उससे कभी न मिले
शायद किनारे उससे छूट जाए
हौसले टूट जाए
शायद सारा पानी ही सूख
शायद...शायद............शायद .........
शायद नदी गूम हो जाए
संवेदनाओ के रेगिस्तान में.....................
Wednesday, August 20, 2008
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