कौन से अल्फाज़ ज़ख्म-ऐ-ज़िन्दगी बन जायें
बोलने वाले को गुमां कहाँ होता है कभी
कल जिनकी छांव में मिलती थी खुशियाँ सभी
वक्त के साथ रिश्तें बोझ बन जाते हैं वही
मुसलसल होती रहे बरसात पर मौजू है ये भी
खिलते नहीं संवेदनाओं के फूल बंजर में कभी
लहू रगों की जगह बहने लगे आंखों से
या परवर लौट के न आए फ़िर वो मंजर कभी
कशमकश में फंसी साँसे कभी तो होंगी मुख्तसर
यही सोच कर तय कर रहे हैं ये सफर अभी ही
अभी शाम नही ढली पूरी आशना,चलो
ले लें अपना हक़,करें पूरा अपना फरोजा भी
Monday, August 25, 2008
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