क्या पूछती है है जिंदगी तू मुझसे
मेरी आँखें पढ़,ये ख़ुद मुजस्सम सवाल हैं
तू तो अपनी जगह लाजवाल है
पर मेरी भी कशिश का अपना जमाल है
जोर लगा ले जितना भी
मुझे हिलाना मुश्किल है
पड़ सकती है खराश पत्थर पर
पर मेरे इरादों को डिगाना नामुमकिन है
इल्म है मुझे क्या चाहती है तू मुझसे
तेरी ही चलती आई है ये कायनात है जब से
अब नही !!!
बिजलियों का शोर जहन में समंदर का उफान है
सब्र के पैमाने में छलक आया हिम्मत का तूफ़ान है
कुचलती है जान कर क्या तू मुझे बर्ग-ऐ-हिना?
सीखा है पार करना हमने,गर्दिश-ऐ-गिर्दाब में खोये बिना
फलक मिटाएगा कब तलक नक्शे-जहाँ से हमें
गर मिट गए भी तो रहबरी के काम आएँगे बहर-ऐ-हस्ती में.........
Monday, August 25, 2008
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