क्यों नही हैं
मेरे भी दो व्यक्तित्व
एक अन्दर और दूसरा बाहर
एक दिखावे के लिए-
खुशमिजाज,प्रिय,दोस्ताना.
एक अन्दरवाला,सच-
स्वार्थी,लालची,मौकापरस्त.
क्यो नही आता मुझे
केवल और केवल
मतलब साधना
मतलब पर ही करना
देवों की आराधना
क्यों नही आता
अपनी बातों से पर मन बांधना
हंसी में हँसना,और
दर्द में रास्ता निकालना
भाग जाना??
क्यों??
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