Monday, July 5, 2010

नाराज़गी

नफ़रत के नक़ाब तले ज़िन्दगी जब किया था महफूज़
सोचा न था ये मेरी फिदरत बन जाएगी

गूंजते हैं कानों में मेरे वो लफ्ज़ आज भी
क्या था पता, न हो रफ़ू जिगर पे ऐसे चाक छोड़ जायेगी

अब है रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी,पर हवास है रफ्ता
न जाने ज़िन्दगी से ये बेख़ुदी कब जायेगी

फिर से कागज़ क टुकड़े मेरे रफ़ीक हैं
न था पता बीती इशरत ही मेरा रकीब बन जायेगी

बातारफ हूँ हर शक्श से हर इंसानी जज्बात से
इंशा-अल्लाह मेरी ये नाराज़गी कब जाएगी

हो जाए जिसमे फ़ना ये कोफ़्त ये गुबार सारा
इंतज़ार है मुसलसल वो फिजा कब आएगी

4 comments:

Anonymous said...

welcome , great

Anonymous said...

अंतर्मन के अहसास प्रशंसनीय प्रस्तुति

mastkalandr said...

हो जाए जिसमे फ़ना ये कोफ़्त ये गुबार सारा
इंतज़ार है..मुसलसल वो फिजा कब आएगी ..
वाह वाह बहुत सुन्दर ....
आपके खुबसूरत ब्लॉग के लिए सुभकामनाएँ ,आप खूब लिखे और बेहतर लिखे .
GOD bless you and your family..मक
http://www.youtube.com/mastkalandr

नवीन said...

लाजवाब क्या कहने