नफ़रत के नक़ाब तले ज़िन्दगी जब किया था महफूज़
सोचा न था ये मेरी फिदरत बन जाएगी
गूंजते हैं कानों में मेरे वो लफ्ज़ आज भी
क्या था पता, न हो रफ़ू जिगर पे ऐसे चाक छोड़ जायेगी
अब है रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी,पर हवास है रफ्ता
न जाने ज़िन्दगी से ये बेख़ुदी कब जायेगी
फिर से कागज़ क टुकड़े मेरे रफ़ीक हैं
न था पता बीती इशरत ही मेरा रकीब बन जायेगी
बातारफ हूँ हर शक्श से हर इंसानी जज्बात से
इंशा-अल्लाह मेरी ये नाराज़गी कब जाएगी
हो जाए जिसमे फ़ना ये कोफ़्त ये गुबार सारा
इंतज़ार है मुसलसल वो फिजा कब आएगी
Monday, July 5, 2010
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